राँची (ख़बर आजतक): स्व कार्तिक उरांव ने चार दशक पूर्व ही धर्मातरित आदिवासियों की कानूनी स्थिति के इस विषय को पहचान कर एक दूरदर्शी राजनेता की तरह इसे उचित समय एवम सभी उचित मंचो पर उठाया। आज जनजाति सुरक्षा मंच पूरे देश भर में डिलिस्टिंग का आंदोलन एवम आदिवासी समुदाय में जनजागरण कर रही है। जो सपना कार्तिक बाबू ने 50वर्षो पूर्व देखा था परंतु उस समय के राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अधूरा रह गया था या यूं कहे की आदिवासी समाज में इस विषय को लेकर जनजागरण का कार्य नही होने के कारण संविधान के इस विसंगति को दूर करने में असफल रहे। जबकि स्व कार्तिक उरांव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को 235 सांसदों का हस्ताक्षर युक्त ज्ञापन दिया और ऐसे लोगों को हटाने की मांग की।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी हाल के कुछ निर्णयों में सिद्धांत रूप से इस बात को स्वीकार किया कि धर्मातरण के बाद नैतिक एवम सांस्कृतिक रूप से जनजाति समाज का व्यक्ति अपने पूर्ववर्ती जनजाति समाज अर्थात मूल जनजाति समुदाय का नहीं रह जाता। अतः आवश्यकता इस बात की है अनुसूचित जाति की तरह जनजाति समुदाय के लिए भी कानून स्पष्ट हो।
देश की 700 से अधिक जनजातियों के विकाश एवम उन्नति के लिए संविधान निर्माताओं ने आरक्षण एवम अन्य सुविधाओं का प्रावधान किया था। लेकिन इन सुविधाओं का लाभ उन जनजातियों के स्थान पर वे लोग उठा रहे है, जो अपनी रूढ़ी परम्परा छोड़कर ईसाई या मुसलमान बन गए है। संविधान की व्याख्या करते हुए लोकुर कमिटी ने कहा कि भारत में निवास कर रहे अनुसूचित जनजाति समुदाय का अर्थ है- भौगोलिक दूरी, विशिष्ट संस्कृति, बोली-भाषा , परम्परा एवम रूढ़िगत न्याय व्यवस्था, सामाजिक आर्थिक पिछड़ापन एवम संकोची स्वभाव। अतः इन जनजातियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखकर उनके लिए न्याय और विकास को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण एवम अन्य विशेष प्रावधान किए गए।
संविधान निर्माताओं ने जनजातियों को यह सुविधाएं एवम अधिकार अपनी संस्कृति, आस्था, परम्परा की सुरक्षा करते हुए विकास करने हेतु सशक्त बनाने के लिए दिए गए थे। किंतु दुर्भाग्य यह है की अनुसूचित जाति की तरह इस कानून की सही तरीके से व्याख्या नहीं होने के कारण वैसे लोग जिन्होंने अपनी संस्कृति,आस्था, परम्परा को त्याग कर विदेशी धर्म अपना लिए है। इन सुविधाओं का 80% लाभ मूल जनजाति से छीन रहे है।
इतिहास के पन्ने बताएंगे की जो अंग्रेजो के शासन काल लगभग 150 वर्षो में ईसाई मिशनरियों द्वारा इतना धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, जितना आज़ादी मिलने के बाद। 1947 में मणिपुर में 7% जनजाति ईसाई थे, लेकिन यह संख्या आज बढ़कर 70% हो गई, मेघालय में 24.66% थी जो बढ़कर 75% हो गया नगालैंड में 46% से 95% ,मिजोरम में 47% से 90% अरुणाचल प्रदेश एवम सिक्किम में 1971 तक ईसाई मिशनरियों का प्रवेश नहीं हुआ था परंतु आज 30% जनसंख्या धर्म परिवर्तन कर चुकी है मानो ऐसा लगता है कि आजादी मिली है तो ईसाई मिशनरियों को धर्म परिवर्तन करने की।
स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि ईसाई धर्म मुख्य रूप से आजादी के बाद आदिवासी आबादी में मजबूत हुआ। स्वतंत्रता के बाद, चर्च ने इस क्षेत्र में जनजातीय और क्षेत्रीय उप-राष्ट्रवाद के विभिन्न उग्रवादी दावों को प्रेरित करना और नेतृत्व करना शुरू कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इससे 1951 के बाद पूरे क्षेत्र में ईसाई धर्म के निरंतर विस्तार में मदद मिली है।
इसलिए जनजाति समुदाय की जो भी समस्याएं आज है उन सभी समस्याओं का निदान यह डिलिस्टिंग है क्योंकि संविधान की 15(1) धारा के अनुसार धर्म ,कुटुंब , भाषा,जाति,लिंग, उत्पति के स्थान या इन में से किसी के आधार किसी प्रकार का भेदभाव नही होना चाहिए। ईसाई मिशनरी द्वारा संविधान की 15(1) धारा की आड़ में तो केवल धर्म परिवर्तन ही हो रहा है ।
कार्तिक उरांव ने जो मशाल 1967 में जलाया था आज श्री कड़िया मुंडा जी आगे बढ़ा रहे है। यह न केवल जनजाति समाज को बल्कि प्रत्येक न्याय प्रिय भारतीयों को सोचना पड़ेगा की इसका समाधान कैसे हो? ताकि गत 75 वर्षो से जनजातियों के साथ हो रहा अन्याय दूर हो। जनजाति सुरक्षा मंच गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन की भांति ही आंदोलन खड़ा कर रही है और जनजाति समुदाय में अपने स्वधर्म, संस्कृति एवम अपने अधिकारों की रक्षा के लिए बिरसा मुंडा की तरह नया उलगुलान।