राँची (खबर_आजतक): झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में पेसा (PESA) कानून को लागू करने में 25 वर्षों से अधिक की देरी ने कई सवाल खड़े किए हैं। यह देरी संविधान के 73वें संशोधन की भावना के विपरीत मानी जा रही है, जो स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने के लिए बना था।
पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 को अनुसूचित जनजातियों को जल, जंगल और जमीन पर अधिकार देने के उद्देश्य से बनाया गया था। यह कानून ग्राम सभाओं को खनिज संसाधनों, परंपराओं और विकास योजनाओं पर निर्णय लेने का अधिकार देता है। झारखंड में राज्य गठन (2000) के बाद भी पेसा की नियमावली 2022 तक नहीं बनी, और अब तक अधिसूचित नहीं हो सकी है।
मुख्य बाधाओं में प्रशासनिक सुस्ती, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, खनन माफिया का दबाव और आदिवासियों में जागरूकता की कमी शामिल है। खनन और औद्योगिक समूह पेसा से ग्राम सभाओं के नियंत्रण के डर से इसका विरोध करते हैं।
यदि पेसा लागू हो, तो ग्राम सभाएं स्वशासी बन सकेंगी और जल-जंगल-जमीन पर नियंत्रण पा सकेंगी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं।
आज जरूरत है कि झारखंड में सर्वदलीय सहमति बनाकर नियमावली को जल्द अंतिम रूप दिया जाए। केंद्र सरकार को भी राज्य सरकार पर दबाव बनाना चाहिए ताकि आदिवासी समाज को उनका संवैधानिक हक मिल सके। पेसा केवल कानून नहीं, आदिवासी सशक्तिकरण की कुंजी है।
अगर आप इसे किसी अख़बार में भेजने के लिए डिज़ाइन या PDF लेआउट चाहते हैं, तो मैं वह भी बना सकता हूँ।