लेखक: विजय शंकर नायक, केंद्रीय उपाध्यक्ष, आदिवासीमुलवासी जनाधिकार मंच
राँची (ख़बर आजतक) : संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1994 में घोषित विश्व आदिवासी दिवस हर वर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह अवसर न केवल आदिवासी समुदायों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने का है, बल्कि उनके सामने खड़ी चुनौतियों और उनके पर्यावरणीय योगदान को भी वैश्विक मंच पर लाने का है।
प्रकृति के सच्चे संरक्षक
गोंड, संथाल, भील जैसी भारतीय जनजातियों से लेकर अमेज़न की यानोमामी और अफ्रीका के मासाई तक—आदिवासी समुदाय पीढ़ियों से जंगल, जल और जमीन के संरक्षक रहे हैं। विश्व बैंक (2023) की रिपोर्ट बताती है कि आदिवासी इलाकों में जैव-विविधता का ह्रास 30% कम है, जबकि UNEP (2024) के मुताबिक दुनिया के 80% से अधिक जैव-विविधता वाले क्षेत्र आदिवासी समुदायों के अधीन हैं।
सांस्कृतिक धरोहर और भाषाई संकट
सोहराय उत्सव, गोंडी चित्रकला, और मिज़ो लोकगीत जैसी परंपराएं आदिवासी जीवनदर्शन को जीवंत बनाए रखती हैं। लेकिन यूनेस्को के अनुसार, आधी से अधिक आदिवासी भाषाएं 21वीं सदी के अंत तक विलुप्त हो सकती हैं। भारत में 700 से अधिक आदिवासी समुदायों की 100 से अधिक भाषाएं संकटग्रस्त हैं।
संघर्ष और विस्थापन
खनन, औद्योगीकरण और भूमि अधिग्रहण से लाखों आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र (2024) के अनुसार, विश्व के 40% आदिवासी समुदाय अपनी पारंपरिक भूमि खो चुके हैं। भारत में पिछले दो दशकों में 50 लाख से अधिक आदिवासी परिवार विस्थापित हुए हैं, जिनमें मानसिक स्वास्थ्य संकट 2.5 गुना अधिक है।
2025 की थीम: आदिवासी महिलाओं की आवाज़
इस वर्ष का फोकस आदिवासी महिलाओं के नेतृत्व और उनके संघर्ष पर है। ओडिशा की डोंगरिया कोंध महिलाओं का नियामगिरी पहाड़ियों को खनन से बचाने का आंदोलन और गोंडी महिलाओं का कला के जरिए आर्थिक सशक्तीकरण इसका उदाहरण हैं।
भविष्य की राह
विशेषज्ञ मानते हैं कि शिक्षा में आदिवासी भाषाओं को शामिल करना, डिजिटल संरक्षण, भूमि अधिकारों की रक्षा, और आदिवासी उत्पादों को वैश्विक बाज़ार तक पहुँचाना समय की मांग है।
लेखक का संदेश:
“आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच के माध्यम से हम आदिवासियों की संस्कृति और अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। विश्व आदिवासी दिवस 2025 पर, आइए हम उनकी आवाज़ को और बुलंद करें।” – विजय शंकर नायक, केंद्रीय उपाध्यक्ष, आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच।